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mat pucho ki kis tarah se kat rahi hai zindgi.... |
कट रही है ज़िंदगी,
यारों उस दौर से गुजर रहा हूँ,
जो की गुजरता हीं नहीं,
कुछ पा लेने की चाह में,
हर दिन हीं कुछ खोता हूँ,
सह लेता हूँ कभी दर्द बड़े तो,
कभी छुपके पलकें भिगोता हूँ,
सहमा सा होता हूँ कभी,
हार जाने के दर से मैं,
बेशक जीता हूँ आज में हीं,
पर कल को भूल न पाता हूँ,
मानो वक़्त यूँ खफा है जो,
चाहकर भी ठहरता हीं नहीं,
मत पूछो की किस तरह से,
कट रही है ज़िंदगी,
यारों उस दौर से गुजर रहा हूँ,
जो की गुजरता हीं नहीं,
हर सुबह की नयी रौशनी सी,
कोई नयी चाह रोज दिल में जगती,
चलने की सोचूं आगे तो,
हर राह हीं तब आसान है लगती,
कोई पल जो दिल को भा जाता,
कोई मंज़िल नज़रों को जँच जाती,
तभी कुछ ऐसा हो जाता की,
हर ख़ुशी है फींकी पड़ जाती,
लड़खड़ाने को मजबूर हों मानो,
चाह कर भी संभालता हीं नहीं,
मत पूछो की किस तरह से,
कट रही है ज़िंदगी,
यारों उस दौर से गुजर रहा हूँ,
जो की गुजरता हीं नहीं..
1 टिप्पणी:
Bahut sundar
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